Thursday, September 20, 2012

"GHAZAL PUBLISHED IN LITERARY URDU MAGAZINE " DAWAT O TABLEEGH " OCT-DEC 2012 EDITION (DELHI )"

"GHAZAL PUBLISHED IN LITERARY URDU MAGAZINE " DAWAT O TABLEEGH " OCT-DEC 2012 EDITION (DELHI )"


COURTESY : Rahatmazahiri Mazahiri JI 

वही  फुरक़त  के   अँधेरे  वही  अंगनाई  हो
तेरी  यादों  का हों  मेला   ,शब् -ए -तन्हाई  हो 

मैं  उसे  जानती  हूँ  सिर्फ  उसे  जानती  हूँ
क्या  ज़ुरूरी  है  ज़माने  से  शनासाई  हो

इतनी  शिद्दत  से  कोई  याद  भी   आया  ना  करे
होश  में   आऊं  तो  दुनिया   ही  तमाशाई  हो

मेरी  आँखों  में  कई  ज़ख्म  हैं  महरूमी  के
मेरे  टूटे  हुए    ख़्वाबों  की  मसीहाई  हो

वो  किसी और का है मुझ से बिछड कर “सीमा “
कोई ऐसा   भी  ज़माने में न हरजाई हो

Friday, September 14, 2012

"दर्द की रुदाद"

Seema Gupta Poetry Book "Dard Ka Dariya" Review By Aslam Chishti Ji Published in " "SUKHANWAR" Julu-Augustl 2012  EDITION (BHOPAL)


"दर्द  की रुदाद"
"सीमा गुप्ता के मजमुए कलाम दर्द के दरया की रौशनी में"
सीमा  गुप्ता अब हिंदी उर्दू हिंदी अदबी हलकों में शोहरत अख्तियार कर चुकीं हैं .  बुनियादी तौर पर हिंदी की कवयित्री हैं. लकिन उर्दू  तहजीब से वाकफियत और उर्दू के अलफ़ाज़ के  मयस्सर इस्तेमाल की वजह  से इनकी मकबूलियत   उर्दू हलकों में भी  है. यही नहीं बल्कि  आल इंडिया मुशायरा   भी पढ़ती रहती हैं कवी सम्मेलन में भी जाती हैं , , बेरोनी मुम्मालिक में भी ये  बहसियत  शायरा बुलाई जाती हैं . 
इनकी शोहरत इनके ब्लॉग और फसबूक की वजह से ज्यादा हुई है. फसबूक के जरिये से ही मेरा इनसे राबता हुआ  . मैंने इन्हें  इन्ताही मुहज्जिब और बेहतरीन शायरा के रूप में देखा. Television    में उनकी जुबानी मेने बारह उनका कलाम सुना है और दाद दिए बिना नहीं रह सका. और जबकि मैं असरे हाज़िर के फाल और मयारि  कलमकारों पर मज़ामीन  लिखने लगा हूँ तो ख्याल आया क्यो ना  सीमा गुप्ता की  शायरी पर भी एक  मज़मून लिख दूँ.  
मैंने अपनी  अवलीन  फुर्सत  में उनके  "दर्द   के दरिया " का मुताला किया.  ये मुताला सीमा गुप्ता के बारे में मेरे लिए नया तजुर्बा रहा.  ये तजुर्बा  दिलचस्प कम हैरतंगेज़ ज्यादा है, की वाकी इसमें  एक दर्द का दरिया है. मुक्तलिफ़ उन्मानत के तहत सीमा गुप्ता की नज्मे किताब के १४९ सफा पर फैली हुई हैं .  हर नज़्म में दर्द का एक अलग रंग है. कुछ नज़्म नमुनन पेश हैं:

"अमानत" 
अमानत में आब और खयानत ना की जाए
आहें- शर्र्फिशा आज उन्हें लोटाई जाये
हिज्र-ए-यार में जो हुआ चाक दामन मेरा
दरिया-ए-इजतराब उनके सामने ही बहाई जाए
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"बेवफाई को एक नया नाम "  
 मन की आहटों का 
एक नाजुक सफर था तेरे मेरे दरमियाँ ...... 

ना मुझे चाँद तारो की ख्वाईश 
ना तुम्हारी कोई फरमाईश 

न मुझ पे तेरी निगाहों का पहरा 
न तुझ पे मेरी कोई ज़ोर आजमाईश 

दोनों के पास ही तो उन्मुक्त आसमान था .... 

तेरी बेरुखी की खामोश अदा ने 
मान हानि का जिक्र क्या किया यूँ लगा ,
"बेवफाई को " एक नया नाम मिल गया ....

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"तेरा ख्याल"
ख्याल भी तेरा
"आज"
मुझे रुला न सका
शरारा -ए- रंज का दिल से
कोई सौदा हुआ शायद
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"रश्क"
तबियत की बेदिली के अंदाज़ पे
अब रश्क क्या करें 
छोटी सी बात पे तोड़ के उनसे रिश्ता 
बहते रहें आब अश्क क्या करें 
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"एहसास"
खामोश चेहरे के
खुश्क मरुस्थल पे
तेरे लबों की
एक जुम्बिश
एहसास के अंगारों का
पता दे गयी 
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ऐसी छोटी बड़ी सीमा गुप्ता की नज्मे  कई तरह के दर्द का एहसास जगाती हैं. सारी नज्मों में दर्द की एक लहर है , ये लहर कारी को पहली नज़्म से ही अपनी गिरफ्त में ले लेती है . कारी चाहे वो मर्द हो के  औरत महसूस किये बगैर नहीं रह सकता.  इस एहसास से मै  भी गुज़रा हूँ .  इस नतीजे पर पहुंचा हूँ की सीमा गुप्ता इंसान के दर्द के आशना ही नहीं बल्कि इस दर्द के दर्मा की मुत्तलाशी   भी हैं .  ये तलाश ही उनकी तकलिखी खूबी है. तड़प है जो उन्हें बेचैन रखती है और नई कविताएँ / नज्मे कहने पर उकसाती हैं.  सीमा गुप्ता की तकलिखी सलाहियतों की कोई सीमा नहीं .  शायद उनकी आखिरी साँस ही इस दर्द की लहर की सीमा हो.  तब तक ये जमाने को दर्द के बेशुमार रंग दे चुकी होंगी .  असल में ये दर्द सीमा गुप्ता का  जाती दर्द नहीं, नारी जाती का दर्द है, जो अज़ल से जारी है और अबद तक जारी रहेगा.  इसे महसूस करने वाले महसूस करते हैं , न महसूस करने वाले  नहीं महसूस करते. लकिन ये हकीकत है की ये दर्द मुस्तकिल है जो नारी जाती का नसीब है.  

"दर्द का दरिया" सीमा गुप्ता का दूसरा मजमा-ए-कलाम है  , जो हिंदी / उर्दू स्क्रिप्ट में साया हुआ है. इस तरह दोनों जबानो के कारिन फैज्याब होंगे, लेकिन खूबी ये की लफजियात दोनों स्क्रिप्ट्स में यकसान हैं. ये सीमा गुप्ता की लिसानी खूबी है की उन्होंने अपनी नज्मों / कविताओं में ऐसे शीतल सहल  और सजल अल्फाज का इस्तेमाल किया है , जिसे दोनों जबानो के कारिन आसानी से समझ सकते हैं. 
यही वजह है की सीमा गुप्ता की सफलता दोनों हलकों में है , जहाँ तक उर्दू अदबी हलकों की बात है यहाँ तो ग़ज़ल छाई  हुई है , दुसरे अस्नाफ़ -ए- सुखन इतने मकबूल नहीं हो पाते इस बात का एहसास सीमा गुप्ता की भी है , उन्होंने ग़ज़ले भी कही हैं , नामुन्तन   एक ग़ज़ल :

चोट दिल पर लगी नहीं  होती
हमसे फिर शायरी नहीं होती
तुमसे अगर दोस्ती नहीं होती
ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती
खुद पे इल्जाम मत समझ लेना
बिन तेरे मयकशी नहीं होती
काम अच्छे किये चले जाओ
कोई नेकी बदी नहीं होती
तेरे दीपक ही बुझ गये शायद
वर्ना ये तीरगी नहीं होती
गम मयस्सर तुम्हे नहीं आता
हमको हासिल ख़ुशी नहीं होती
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उनकी ग़ज़ले छपी भी हैं लकिन सीमा गुप्ता की दिलचस्पी नज्मो / कविताओं में ज्यादा है.  बल्कि उनका ख़ास मैदान नज़्म / कविता ही है. उर्दू जबान में पाबंद नज्मे खूब कही गयी हैं . इन नज्मो की तारीखी अदबी और तहजीबी अहमियत भी है , लकिन दो ढाई दहाइयों से पाबंद नज्मों का चलन कम हो  गया है , आज़ाद नज्मे और नसरी नज्मे ज्यादा कही जा रही  हैं . सीमा गुप्ता की नज्मे नसरी नज्मे कही जा सकती हैं.   
उर्दू में भी ऐसी  नज्मे कुछ संजीदा शायर कह रहे हैं इसलिए सीमा गुप्ता का कलाम आज के उर्दू कारिन के लिए अजनबियत  नहीं रखता और फिर इन नज्मो में भी लफ्जों का अहंग ख्याल का साथ देता है .   सीमा गुप्ता का ये अंदाज़े सुखन भी मुलाहजा फरमाएं 

"हथेली पे उतारा हमने" 

रात भर चाँद को चुपके से 
हथेली पे उतारा हमने 
कभी माथे पे टिकाया 
कभी कंगन पे सजाया 
आँचल में टांक के मौसम की तरह 
अपने अक्स को संवारा हमने 
 रात भर चाँद को चुपके से
 हथेली पे उतारा हमने 
सुना उसकी तन्हाई का सबब 
कही अपनी दास्तान भी 
तेरे होटों की जुम्बिश की तरह 
पहरों दिया सहारा हमने 

रात भर चाँद को चुपके से 
हथेली पे उतारा हमने 
अपने अश्को से बनाके 
मोहब्बत का हँसीं ताजमहल 
तेरी यादों की करवटों की तरह 
यूँ हीं एक टक निहारा हमने 
 रात भर चाँद को चुपके से 
हथेली पे उतारा हमने
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"कोई इस चाँद से पूछे"
पहाड़ियों , घाटियों के ऊपर
बादलों की धारा में बहता झील की 
डबडबाती आँखों में तैरता
चुप सा तन्हा चाँद का टुकड़ा
सितारों की जगमगाहट ओढ़
रात और दिन के बीच का सफ़र
निरंतर तय कर रहा है
एकांत में जीना कैसा होता है
कोई इस चाँद से पूछे....
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इंसानी दर्द को कायनात की अस्या से मिलाना सीमा गुप्ता का फन है. ये फनकारी उनकी कुछ नज्मो में बहूत मजा देती है . असल में सीमा गुप्ता की तकलिखी कुवत तवाना है . अपने तकलिखी रिआज के समय जो  कल्पना उनके अन्दर  जन्म लेती है वो  उसे लफ्जों का लिबास पहना देतीं हैं  . लफ्जों का चुनाव और चयन सीमा गुप्ता को आता है . इसी हुनर ने सीमा गुप्ता को शायरा बनाया है.  एक और ख़ास बात की हर नज़्म में वो दर्द के किसी न किसी ख़ास पहलू पर बात करती हैं. लकिन मायूसी और उदासी की परछाइयों को अपनी नज़्म के करीब नहीं आने देती.  अगर ये कहीं आ भी जाती हैं तो नज़म के आस पास ही चमक कर बुझ जाती  हैं .  

दर्द का दरिया का पेश-ए-लफ्ज सारो शायर सिनास कुल हिंद शायर डॉ लारी आजाद ने लिखा है   . जो असल में सीमा गुप्ता का शख्स  और फनी तार्रुफ़ है . इसमें सीमा गुप्ता ने भी  "मन की ओस की गर्म बुँदे" नाम से एक मज़मून साहित्यिक भाषा में तहरीर किया है .  जो उनकी नज्मे / कवितायेँ पढने के लिए कारी का मूड बनाता है .  तासुरात अनुमान के तहत   हिंदी और उर्दू के आठ दानिश्वरों की राय उनके पहले मजमुआ "विरह के  रंग"  पर हैं.  सभी दानिश्वरों ने सीमा  गुप्ता की शायरी की सराहना की है और सभी  की एक मुस्तरका राय बनती है की सीमा गुप्ता हिज़र , फ़िराक की शायरा है , मगर मेरी नज़र में ये पूरा सच  नहीं   है, पूरा सच उस समय  बनेगा जब उनकी कविताओं को खुले दिमाग से समझा जायेगा , और खुले दिमाग से महसूस किया जायेगा, तब इन रचनाओं की एहमियत सामने आएगी और ये कवितायेँ जात   के दर्द से शुरू   होकर  नारी के असल दर्द को जाहिर  करते हुए  चारों  और फैली नज़र आएँगी   .  

(ASLAM CHISHTI)




Wednesday, September 12, 2012

"Poetry NAZM PUBLISHED IN ONE OF FAMOUS LITERARY MAGAZINE "ARPITA " JULY-SEPT 2012 EDITION (RUDARPUR)"


" कभी यूँ भी हो "

कभी यूँ भी हो
देखूं तुम्हे ओस में भीगे हुए
रेशमी किरणों के साए तले सारी रात
चुन लूँ तुम्हारी सिहरन को
हथेलियों में थाम तुम्हारा हाथ

महसूस कर लूँ तुम्हारे होठों पे बिखरी
मोतियों की कशमश को
अपनी पलकों के आस पास

छु लूँ तुम्हारे साँसों की उष्णता
रुपहले स्वप्नों के साथ साथ

ओढ़ लूँ एहसास की मखमली चादर
जिसमे हो तुम्हरी स्निग्धता का ताप

कभी यूँ भी हो .....
देखूं तुम्हे ओस में भीगे हुए
रेशमी किरणों के साए तले सारी रात

Saturday, September 8, 2012

"GHAZAL PUBLISHED IN ONE OF FAMOUS LITERARY MAGAZINE "KAFIYA " JULY-SEPT 2012 EDITION (JALANDHAR)

"GHAZAL PUBLISHED IN ONE OF FAMOUS LITERARY MAGAZINE "KAFIYA " JULY-SEPT 2012 EDITION (JALANDHAR)


ख्वाब जैसे ख्याल होते हैं
इश्क में ये कमाल होते हैं

एक नमूना हो ज़िन्दगी जिनकी
लोग वो बे मिसाल होते हैं

शब् की तनहाइयों में अक्सर ही
जलवा-गर सब ख्याल होते हैं

इश्क बर्बाद हो गया कैसे
हुस्न से ये सवाल होते हैं

उनकी फुरक़त में रात दिन "सीमा"
आजकल हम निढाल होते हैं
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Khuwab jaise khayal hote hai'n
Ishq mei'n ye kamaal hote hai'n


ek namuna ho jindgi jinki
log vo be misaal hote ha'in


Shab ki tanhaiyo'n mei'n aksar hi
Jalwa-ghar sab khayal hote hai'n


Ishq barbaad ho gaya kaise
husn se ye sawaal hote hai'n


Unki Furqat mei'n raat din seema
Aajkal ham nidhaal hote hai'n